Friday, July 15, 2011

काल निदा फ़ाझलींचा एक शेर वाचला.

पहले हर चीझ थी अपनी मगर अब लगता है
अपनेही घरमे किसी दुसरे घरके हम है

वारंवार होणारे अतिरेकी हल्ले बघून आता असंच वाटायला लागलंय़ :-(

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